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देव॑ सवितरे॒ष ते॒ सोम॒स्तꣳ र॑क्षस्व॒ मा त्वा॑ दभन्। ए॒तत्त्वं दे॑व सोम दे॒वो दे॒वाँ२ऽउपागा॑ऽइ॒दम॒हं म॑नु॒ष्या᳖न्त्स॒ह रा॒यस्पोषे॑ण॒ स्वाहा॒ निर्वरु॑णस्य॒ पाशा॑न्मुच्ये ॥३९॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

देव॑। स॒वि॒तः॒। ए॒षः। ते॒। सोमः॑। तम्। र॒क्ष॒स्व॒। मा। त्वा॒। द॒भ॒न्। ए॒तत्। त्वम्। दे॒व॒। सो॒म॒। दे॒वः। दे॒वान्। उप॑। अ॒गाः॒। इ॒दम्। अ॒हम्। म॒नु॒ष्या॒न्। स॒ह। रा॒यः। पोषे॑ण। स्वाहा॑। निः। वरु॑णस्य। पाशा॑त्। मु॒च्ये॒ ॥३९॥

यजुर्वेद » अध्याय:5» मन्त्र:39


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे कैसे हैं, यह अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (देव) सब विद्याओं के प्रकाश करनेवाले ऐश्वर्य्यवान् विद्वान् सभाध्यक्ष ! जैसे मैं आप के सहाय से अपने ऐश्वर्य्य को रखता हूँ, वैसे तू जो (एषः) यह (ते) तेरा (सोमः) ऐश्वर्य्यसमूह है (तम्) उसको (रक्षस्व) रख। जैसे मुझ को शत्रुजन दुःख नहीं दे सकते हैं, वैसे (त्वाम्) तुझे भी (मा दभन्) न दे सकें। हे (देव) सुख के देने और (सोम) सज्जनों के मार्ग में चलाने हारे राजा ! (त्वम्) तू (एतत्) इस कारण सभाध्यक्ष और (देवः) परिपूर्ण विद्या प्रकाश में स्थित हुआ (देवान्) श्रेष्ठ विद्वानों के (उप) समीप (अगाः) जा और मैं भी जाऊँ। जैसे मैं (इदम्) इस आचरण को करके (रायः) अत्यन्त धन की (पोषेण) पुष्टताई के साथ (मनुष्यान्) विचारवान् पुरुष और (देवान्) विद्वानों को प्राप्त होकर (वरुणस्य) दुःख से तिरस्कार करनेवाले दुष्टजन के (पाशात्) बन्धन से (मुच्ये) छूटूँ, वैसे तू भी (निः) निरन्तर छूट ॥३९॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। सब मनुष्यों को योग्य है कि जिस अप्राप्त ऐश्वर्य्य की पुरुषार्थ से प्राप्ति हो, उस की रक्षा और उन्नति, धार्मिक मनुष्यों का सङ्ग और इससे सज्जनों का सत्कार तथा धर्म का अनुष्ठान कर, विज्ञान को बढ़ा के दुःखबन्धन से छूटें ॥३९॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(देव) सकलविद्याद्योतक (सवितः) ऐश्वर्यवन् (एषः) प्रत्यक्षः (ते) तव (सोमः) ऐश्वर्यसमूहः (तम्) (रक्षस्व) अत्र व्यत्ययेनात्मनेपदम्। (मा) निषेधे (त्वा) त्वाम् (दभन्) हिंस्युः, अत्र लिङर्थे लङडभावश्च। (एतत्) एतस्मात् (त्वम्) सभाध्यक्षो राजा (देव) सुखप्रद (सोम) सन्मार्गे प्रेरक (देवः) विद्याप्रकाशस्थः (देवान्) दिव्यान् विदुषः (उप) सामीप्ये (अगाः) गच्छ (इदम्) त्वदनुष्ठितं अहम् (मनुष्यान्) मननशीलान् (सह) (रायः) धनसमुदायस्य (पोषेण) पुष्ट्या (स्वाहा) सत्यां वाचं वदन् सन् (निः) नितराम् (वरुणस्य) दुःखेनाच्छादकस्य तिरस्कर्त्तुः (पाशात्) बन्धनात् (मुच्ये) मुक्तो भवामि। अयं मन्त्रः (शत०३.६.३.१८-२०) व्याख्यातः ॥३९॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे देव सवितः सभाध्यक्ष ! यथाऽहं भवत्सहायेन स्वकीयमैश्वर्यं रक्षामि तथा त्वं य एष ते सोमोऽस्ति तं रक्षस्व। यथा मां शत्रवो न हिंसन्ति, तथा त्वा त्वामस्मत्सहाये मा दभन्। हे देव सोम ! देवस्त्वं यथैतदेतस्माद् देवानुपागास्तथाऽहमप्युपागाम्। यथाऽहमिदमनुष्ठाय रायस्पोषेण सह वर्त्तमानो मनुष्यान् देवांश्चेत्य वरुणस्य पाशान्निर्मुच्ये तथा त्वमपि निर्मुच्यस्व ॥३९॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। सर्वेषां मनुष्याणामियं योग्यतास्ति यदप्राप्तस्यैश्वर्यस्य पुरुषार्थेन प्राप्तिस्तद्रक्षोन्नती कृत्वा धार्म्मिकान् मनुष्यान् संगत्यैतेन सत्कृत्य च धर्ममनुष्ठाय विज्ञानमुन्नीय दुःखबन्धनान्मुक्ता भवन्तु ॥३९॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. सर्व माणसांनी पुरुषार्थाने अप्राप्य अशा ऐश्वर्याची प्राप्ती करून घ्यावी, त्याचे रक्षण करावे व वाढ करावी. धार्मिक माणसांची संगती धरावी. सज्जनांचा सत्कार करावा. धर्मांचे अनुष्ठान करून विज्ञान वाढवावे व दुःखबंधनातून सुटका करून घ्यावी.